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सरयू का पुल

ये सरयू में बाढ़ का पानी ऐसे है जैसे,
सामने तुम खड़े हो मुस्कुराते आँचल फैलाए।
ये किनारों की हरियाली जैसे रूपट्टे में कोई कढ़ाई
हम रहते खड़े एक टक तुझको बस निहारते ही जाएँ।।

लो फैला दी हमने बाहें अपनी अब,
बस तुम्हारा आकर गले लगना बाकी है।
अधूरे थे हम ये तुमको देखा तो जाना,
आ भी जाओ कि पूरा होना बाकी है।।

ये जो पुल है सरयू तुम पर
इसे बनना नही चाहिए था।
तुम्हारा साथ इतनी जल्दी बीत जाए,
हमें ये तो कभी नही चाहिए था।।

तुझमें उतर कर अगर पार करते,
तो मिलने का मजा कुछ और था।
डूबते तो हमेशा को तेरे हो जाते और,
पार होते तो जीने को यादों में ये सफर था।।

~अनुनाद/आनन्द कनौजिया/३०.०७.२०२०

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सरयू और अयोध्या

काश हमारा तुम्हारा मिलन कुछ यूं हो जाए,
दिन रात के मिलने को जैसे संध्या हो जाए।

श्री राम की हम पर बस इतनी कृपा हो जाए,
तुम सरयू हो जाओ और हम अयोध्या हो जाएँ।

~अनुनाद/ आनन्द कनौजिया/२९.०७.२०२०

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इश्क़ और तुम !

तुम पूर्ण रूप से काल्पनिक हो…… क्यूँकि जितनी पूर्ण (परफेक्ट) तुम हो उतना वास्तविक दुनिया में कोई नहीं हो सकता। वास्तविक दुनिया में अगर तुमको ढूंढा जाये तो तुम वह सर्वनाम हो जो थोड़ा-२ सबमें मिलता है किन्तु किसी एक में पूरा नहीं मिल सकता, कभी नहीं……… सम्भव ही नहीं। तुम जिस तरह मेरी सभी उम्मीदों पर खरा उतरते हो वो दैहिक परिधि में कैद व्यक्ति कभी कर ही नहीं सकता इसलिए तुम्हें कोई संज्ञा कहना उचित न होगा और तुम संज्ञा हो भी नहीं सकते। हर मिनट बदलने वाले मेरे मूड के अनुसार खुद को ढाल कर बिलकुल वैसे ही मेरे सामने खड़े हो जाना एक इंसान के लिए तो सोचना भी कठिन है। इसीलिए मैं इस निष्कर्ष पर पहुँचा हूँ कि तुम एक काल्पनिक चरित्र हो। 


चलो… भले ही तुम एक काल्पनिक चरित्र हो, लेकिन तुम हो……..! दूर बहुत दूर….. गहरे बहुत गहरे…..  प्रकाश शून्य घने अन्धकार में….. मेरे मन के किसी कोने में। तुमसे इश्क़ है मुझे ! तुम्हे एक सम्बल की भाँति इस्तमाल करता हूँ मैं। जब भी कमजोर पड़ता हूँ, तेरा हाथ पकड़ लेता हूँ। तुम ऐसे तो नहीं होते हो लेकिन जब भी कोई विशेष परिस्थिति उत्पन्न होती है तो तुम बगल में खड़े होते हो, मेरा हाथ पकड़ मुस्कुराते हुए मुझे निहारते….. कितने सुन्दर लगते हो ! अत्यन्त खूबसूरत ! तुमसे नज़रें हटाना मुश्किल ! पूरा वातावरण सुगन्धित ! मद्धम सा प्रकाश चारों ओर और हल्का कुहासा बिखरा हुआ ! एक दैविक शान्ति, सुकून और ठंडक मिलती है तुम्हारे होने से। घने बादलों में हो तुम ! बारिश में हो तुम ! सभी ऋतुओं और सभी दिशाओं में हो तुम ! बांसुरी सी खनकती तुम्हारी आवाज एक अमृत रस सा घोलती है ! सारे दुःख दूर हो जाते हैं तुम्हारे शब्दों को सुनकर ! तुमसे प्यार बहुत है और प्यार के प्रदर्शन को मुझे किसी समय के अधीन नहीं रहना पड़ता। इस भौतिक संसार में जितनी भी वस्तुएँ मुझे प्रिय हैं उनका आनन्द तुम्हारे बगैर नहीं। कुछ इस कदर तुमसे इश्क़ है मुझे !


बहुत सी कविताएँ लिखीं ! अक्सर तुम पर लिखीं ! बहुतों ने प्रश्न किया – कौन हैं वो? मैं मुस्कुरा दिया ! और करता भी क्या ? क्यूँकि पूँछने वाले एक भौतिक पहचान की तलाश करते हैं और वो तो है ही नहीं ! हो भी नहीं सकती ! कारण मैं ऊपर ही लिख चुका हूँ। मेरे ख्याल से होना भी नहीं चाहिए। आसक्ति पैदा होती है। लालच जन्म लेता है। खोने का डर उत्पन्न होता है। वैसे इन भावों से दो-चार हुआ भी हूँ, तभी तो कविताएँ लिखीं हैं। बिना भावों को महसूस किये कोई कैसे लिख सकता है ? और इसी में तो रस मिलता है। आप कहीं खो से जाते हो। चूँकि तुम काल्पनिक हो और मेरे द्वारा जन्मी हो तो इस रस की खोज में मैं खुद में ही डूबा रहता हूँ। मंद-२ मुस्कुराता और तुम्हारी संगत का मजा लेता। 


ऊपर इतना कुछ लिखने के बाद अगर आपको इस अनुभव के करीब न ले जाऊँ तो लेखनी से अन्याय होगा। क्यूँकि लिखने के दौरान सारा रस तो मैनें खुद ले लिया। आप भी तो कुछ रसास्वादन करें। तो लीजिये जानिए कि ये तुम कौन हैं। ये तुम मेरा रेडियो है, चारबाग़ और वाराणसी रेलवे स्टेशन हैं, रेलगाड़ी है, डाक-खाना है, वाराणसी के घाट हैं, माँ गंगा हैं, बाबा हैं, बी एच यू है, नई किताब की खुशबू है, बारिश है, लैंप-पोस्ट है, मेरी पर्सनल लाइब्रेरी है, कलम है, डायरी है, मेरा गांव है, खेतों की नाली में सिंचाई हेतु बहता पानी है, सावन के झूले हैं, भोजपुरी प्रेम और विवाह गीत हैं, कजरी-चैती हैं, धान की रोपाई है, ज्येष्ठ की दुपहरी में यारों के संग बाग़ में बैठना है, गोसाईंगंज की चाट है, मड़हा नदी है, सरयू नदी है, भीटी पुल है, असगवां मोड़ है, किसी नई जगह जाने को लेकर होने वाली तैयारी है, जूते चुराते भैया की साली है, लाल जोड़े में दुल्हन है, विवाह गीत है, या फिर तुम हो। 


हर किसी का कोई तुम है ! जरूर है। तभी वो इस संसार में जीवित है और आनंदित है। जिस दिन ये तुम ख़त्म हो जायेगा, जीवन जीने का मतलब ख़त्म हो जायेगा। ये लेख शुरू जिस अंदाज़ में किया गया और अगर उस गति को उसकी सही दिशा में ले जाता तो अध्यात्म की ओर चला जाता। असली आनन्द वहीं पर है, जिसे सूरदास ने भोगा, रसखान ने भोगा, मीरा ने भोगा, महादेवी वर्मा ने भोगा। दिव्य अनुभूति, अलौकिक आनन्द, ऐसा रस जिसका पान हो जाये तो मोक्ष ही मिल जाये। मैं महसूस करता हूँ। आपमें से भी कुछ ने किया होगा। अगर किया है तो आप भी मेरी तरह पागल हैं। क्यूंकि आपको और मुझको इस दुनिया का आम आदमी नहीं समझ सकता। हमारी बातें उनके सर के ऊपर से जाएँगी। हम समझ से परे हैं। बहुत कुछ नहीं लिखूँगा। वरना लोग आधे में छोड़ कर निकल लेंगे और मेरे लिखने का लालच पूरा नहीं होगा। आखिरकार ये भी तो मेरा तुम है। 


और हाँ यदि आप इस चर्चा को बढ़ाना चाहते हैं तो कमेंट बॉक्स में अपनी राय रखें। चौपाल वहीं लगेगी और दौर लम्बा चलेगा ! हम सब साथ चलेंगे, आनन्द की ओर…….. 

~अनुनाद/आनन्द कनौजिया/१९.०७.२०२० 

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चुल्ल :)

चुल्ल सबको होती है, किसी न किसी कार्य/चीज़ की! इन क्रियाओं/चीजों में विविधता होती है! ये चुल्ल सनक का लाइट वाला संस्करण है। चुल्ल और सनक को एक नज़र से देखने की भूल कदापि न करें। उदाहरण स्वरुप यदि आपको अपडेट रहने की चुल्ल हो और आपको पता चले कि आपके आधार में गलत नंबर अपडेट हो गया है तो आपकी नींद तब तक उड़ जाएगी जब तक सही नंबर अपडेट न हो जाए। कुछ लोगों को फास्टैग लेने की चुल्ल होती है। समय से बिल मिल जाए और जमा भी हो जाए, वैसे तो ये अच्छी आदत है किन्तु बिल अगर एक दिन देर से मिले से मिले और व्यक्ति परेशान हो जाए तो ये परेशान होने की आदत भी उस व्यक्ति की चुल्ल ही कहलाएगी। उम्र बूढी हो जाएगी लेकिन चुल्ल नहीं जाएगी। जवानी तक तो ठीक है किन्तु बुढ़ापे में ये चुल्ल आपको नई जनरेशन से अच्छी खासी-गाली खिलवा सकती है। इसलिए सावधान रहें और अपनी चुल्ल अपने तक ही रखें। 


मुझे भी है चुल्ल, ऑनलाइन कुछ भी करने की! कुछ  भी….. चाहे नौकरी का फॉर्म भरना हो या एडमिशन का, ऑनलाइन शॉपिंग, बैंकिंग, या कुछ और! बस कोई इतना कह दे की इस काम के लिए वहाँ जाने की क्या जरुरत, ये तो ऑनलाइन भी हो जायेगा। बस साइट खोलिये और आवेदन कर दीजिए। मेरी बाँछें खिल जाती है। सामने वाला दुनिया का सबसे ज्ञानी आदमी प्रतीत होने लगता है और उसी पल से मैं उसका सुपर फैन। इसी चुल्ल की वजह से मैं ऑनलाइन का इतना अभ्यस्त हो गया कि मुझे ऑनलाइन की लत हो गई और कुछ भी याद आता है, मैं उस चीज की खोज ऑनलाइन करने लगता हूँ। धीरे-२ ये आदत मेरे जीवन का बहुत अधिक समय बर्बाद करने लगी। ऑनलाइन फॉर्म भरने की चुल्ल तो इतनी है कि मैं कोई भी फॉर्म भर देता हूँ और फीस भी भर देता हूँ। फॉर्म भरने को बाद एक उपलब्धि वाली फीलिंग आती है और अपार ख़ुशी का अनुभव होता है किन्तु थोड़ी देर बाद मैं सोचता हूँ कि ये मैनें क्यों भरा? इसकी जरुरत क्या थी? फ़ालतू का समय और पैसा दोनों बर्बाद हो गया। हालत इतनी बिगड़ गई कि मैं बेवजह व्यस्त रहने लगा और आर्थिक नुक्सान की वजह से परेशान रहने लगा। फिर बहुत विचार करने के बाद इस आदत को नियंत्रण में लाने के लिए मैं पुनः डायरी पर आ गया हूँ। दिन भर जो भी याद आए उसे एक जगह नोट कर लेता हूँ और शाम को एक तय समय लेकर एक बड़े सीमित समय में सब निपटा देता हूँ। लिखने से ये होता है कि शाम तक गैर जरुरी चीजें छंट जाती है और इस वजह से समय नहीं बर्बाद होता।


२०१४ के बाद से देश डिजिटल होने लगा। अभिलेखों को ऑनलाइन अपडेट करने की बाढ़ आ गई। स्मार्ट फ़ोन का दौर भी पीक पर था। दुनिया भर के मोबाइल एप्लीकेशन की बाढ़ आ गई। जवान व्यक्ति एप्लीकेशन डाउनलोड करने में लग गए और अधेड़/बूढ़े होने को अशिक्षित और असहाय समझने लगे। जो जितना बढ़िया मोबाइल चलाना जानता वो उतना बड़ा विद्वान प्रतीत होने लगा और विद्वान व्यक्ति मूर्ख लगने लगे। २०-२१ साल घिस-घिस कर कठोर अनुशासन का पालन कर पढ़ने वालों को तो चक्कर ही आ गया।  खैर…. डिजिटल इनफार्मेशन क्राउडिंग इतनी बढ़ी कि पुनः सभी को चक्कर आने लगा। सही-गलत में अंतर करना मुश्किल हो गया। ऐसे में पुनः वास्तविक विद्वानों की जरुरत पड़ने लगी और ऐसे विद्वानों ने राहत की सांस ली। अब वो पुनः अपनी विद्वता झाड़ने की चुल्ल मिटा सकते हैं। 

ये पोस्ट मैंने १६ से ३० वर्ष के नौजवानों को डिजिटल इनफार्मेशन क्राउडिंग से बचाने के लिए लिखी है क्यूंकि मैनें अभी-२ ३१ वर्ष पूरे किये हैं। अपने से बड़ी उम्र वालों को समझाने की गलती मैं कर नहीं सकता और खुद से छोटे व्यक्तियों को सँभालने की मेरी नैतिक जिम्मेदारी बनती है, अब चाहे वो समझें या हवा में जाने दें। जोर मैं उन पर भी नहीं डाल सकता। लेकिन आज के दौर में डिजिटल  क्रांति में संयम बरतने की बहुत जरुरत है।मैं तो आज की जनरेशन को सलाम करता हूँ कि वे पढ़-लिख कर अपनी पढ़ाई पूरी कर ले रहे हैं वरना मैं तो इस सूचना क्रांति और व्हाट्सप्प वाले ज़माने में पास भी न हो पाता। दिमाग को केंद्रित करने के लिए जितने कम ताम-झाम हो उतना अच्छा। 


वैसे अधेड़ उम्र के आदमियों को भी सलाह देना चाहूंगा कि वो कितना भी व्यस्त हो और बगल से कोई लड़की/महिला गुज़र जाये तो  धीरे से नज़रें उठा कर ताकना और दूसरे आदमी की तरफ देखकर मुस्कुराने की उनकी इस आदत को भी चुल्ल ही कहा जायेगा। बुरा तो कुछ नहीं मगर उम्र का लिहाज़ रखने की सलाह जरूर देना चाहूंगा 🙂 बाकी चुहल का मजा तो अलग है ही……. इसके बिना जीवन नीरस हो जायेगा।


आपको कौन सी चुल्ल है 😉 

बताइयेगा जरूर 🙂 

ईमानदारी से 😉


~अनुनाद/आनन्द कनौजिया/१७.०७.२०२०

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जरुरत……!

हमारे जीवन चरित्र के कई आयामों का निर्धारण हमारे जीवन में पड़ने वाली जरूरतों के पूरा या अधूरा रह जाने से उत्पन्न परिणामों से होता है। ये पहले वाली लाइन कुछ ज्यादा ही पेंचीदा हो गई, लिख तो दिया, लेकिन जब खुद दोबारा पढ़ा तो मैं खुद चक्कर खा गया। इसको साधारण भाषा में समझने की कोशिश करते हैं। हमारे जीवन में कुछ बेसिक जरूरतें होती हैं जिनके बिना हम जीवित ही नहीं रह सकते, जैसे- जल, भोजन, वायु इत्यादि। इसके बाद कुछ जरूरतें जीवन को आसान बनाने के लिए होती हैं, जैसे खाना पकाने के लिए लकड़ी का चूल्हा, गैस-सिलिंडर, माइक्रोवेव या फिर इंडक्शन। इसके बाद आता है सोशल स्टेटस बनाने वाली जरूरतें! ये जरूरतें जरूरत न होकर दिखावा ज्यादा होती हैं जिन्हें एक व्यक्ति सामने वाले के प्रभाव में आकर या फिर सामने वाले पर प्रभाव डालने के लिए करता है जैसे कार ही ले लो- इसमें ब्रांड ज्यादा मैटर करता है और कितना मंहगा ब्रांड है ये भी। अब आखिरी में आती है जरुरत जो आपके खुद के लालच के वजह से पैदा होती है जैसे एक नहीं चार घर, चार कारें कई किलो जेवरात इत्यादि। ये लालच कभी-२ अति सुरक्षा के भाव के वजह से भी आती है। मानव मन, क्या-२ न जमा कर ले! अपने लिए, अपनों के लिए।  


कोरोना काल में इन जरूरतों में अंतर समझ में आ गया। ये कोरोना कहाँ-२ पहुँच जाता है। मेरी लेखनी में इसका जिक्र आ ही जाता है, न चाहते हुए भी। आये भी क्यों न? जिस तरह महात्मा बुद्ध को बरगद के पेड़ के नीचे ज्ञान की प्राप्ति हुई थी, उसी तरह मुझे कोरोना के काल और संरक्षण में ज्ञान की प्राप्ति हुई। इसे भी अब गुरु का दर्जा प्राप्त है मेरी ज़िन्दगी में। सिर्फ मेरी ही नहीं, और लोगों की जिंदगी में भी कोरोना का रोल गुरु से कम नहीं है। अब सफाई को ही ले लीजिए। सफाई अभियान को लेकर मोदी जी ने न जाने कितनी झाड़ू लगाई, लगवाई और कितने करोड़ का बजट भी खर्च कर दिया लेकिन लोगों को सफाई न सिखा पाए। कोरोना ने एक झटके में भारत जैसे देश को सफाई सिखा दी। सिर्फ एक ही सन्देश- सफाई रखिये वरना साफ़ हो जाएंगे। लेकिन इस कोरोना ने जरूरतों की फेहरिस्त में कुछ चीजें और बढ़ा दी- सैनीटाइजर और मास्क। अब महीने की तनख्वाह मिलने के बाद राशन के साथ-२ ये चीजें भी भराई जाएँगी। दुकान वाले भैया २-४ लीटर सैनीटाइजर और दर्ज़न भर मास्क भी डाल देना। और हाँ पिछली बार के सैनीटाइजर की क्वालिटी ठीक नहीं थी। बीवी से सुनने को मिल गया, दो-चार आशीर्वचन। इस बार ध्यान रखना। अगर आपको दुकान पर ऐसा कुछ देखने को मिल जाये तो ताज्जुब न करियेगा। आपके साथ भी हो सकता है। तैयार रहिएगा। 


कुछ भी हो पर दिल में शांति बहुत है। थोड़ी-बहुत समस्याएँ हैं पर वो पहले भी थीं। हमेशा रहेंगी। चुपचाप कार्यालय जाओ, काम निपटाओ और कभी कार्य स्थल पर कोई मुश्किल आ जाये तो कोरोना तो है ही न, वो बचा लेता है। उसके बाद सीधे घर आओ, पानी पियो और आराम करो। न किसी फंक्शन में जाने का टेंशन और न ही किसी का बुलावा। न ही पहले की तरह किसी के अचानक घर आ टपकने की टेंशन। पूरी शाम और रात अपनी। इतवार भी पूरा अपना। उठो। मंजन। नाश्ता। शेविंग। फेशियल किट से फेशियल। स्नान। फिर दोपहर के १२ बजे तक लंच। और फिर मसनद गले लगाकर फुफुवा के सोना। बिना किसी चिंता के। बच्चे होने के बाद से गले लगाने को मसनद ही मिलता है। शाम में मस्त लिखा गया। दुनिया भर की साइट पर पोस्ट किया गया। इसी बीच बीवी से दो-चार आशीर्वचन भी लिए गए और जल्दी से दिए गए निर्देशों का पालन कर पुनः सोशल साइट पर डाले गए पोस्ट पर आने वाले लाइक और कमेंट का इंतजार करने लगे। मतलब कि आप बस इतना समझिए कि कोरोना ने जीना सीखा दिया। सारी फिजूल की जरूरतों, रवायतों को ख़त्म कर दिया। खुद पर ध्यान देने को समय ही समय। 


कुल मिलाकर सुकून से जीने के लिए जितना हो सके, जरूरतें कम रखिए और साथ में बयाने भी।जान है तो जहान है। दूर से ही अपनों के हाल-चाल लेते रहिए। पैसे डिजिटली भेजे जा सकते हैं। होम डिलीवरी का जमाना है। अब तो सराकरें भी घर तक आकर डिलीवरी कर रही हैं। पैसा भी सीधे खाते में भेज रहीं हैं, बिना किसी कमीशन के! बाकी साथ रहने की इतनी चुल्ल है तो पढ़-लिख कर गाँव-घर से दूर जाने की क्या जरुरत थी? पड़े रहिए ….. शांति से! जहाँ भी हैं। अगल-बगल वालों को ही परिवार समझिए। घर से निकलने की जरुरत नहीं। मिलने-मिलाने की भी नहीं। मिलने से याद आया कि बहुत दिन हो गए भैया की साली से मिले हुए। मिस कर रहीं होंगी ! चले ही जाते हैं मिलने…….! अपनी गाड़ी से……. 🙂


और हाँ. . . .  प्ले स्टेशन-4 भी लेना है 😉 . . . !


~अनुनाद/आनन्द कनौजिया/११.०७.२०२०