क्या नाम दूँ मैं तुम्हे……. नाम देना तो एक परिभाषा में गढ़ने जैसा होगा। तुम्हारे अंदर छुपी असीम संभावनाओं को एक आयाम देने जैसा होगा। किन्तु एक विशेष परिभाषा और आयाम में इंसान की क्षमताओं को केवल एक ही दिशा में सीमित कर दिया जाता है और भविष्य में वही उसकी पहचान बन जाती है। पर मैं नही चाहता कि तुम किसी परिभाषा या एक आयाम में गढ़े जाओ। तुम हमेशा अपरिभाषित, बहुआयामी , अगणित गुणों के स्वामी और हर क्षेत्र में माहिर होना। ऐसे बनो कि तुम्हारी व्याख्या को शब्द काम पड़ जाएं। शब्द तुम्हारी पहचान न बनें बल्कि तुम शब्दों की पहचान बन जाओ। तुम्हें नाम दे पाना मेरे लिए कठिन था किंतु तुम्हारी माँ तुम्हे एक पहचान देना चाहती थी। तुम उसका अक्स हो तो उसका असर तो तुम पर होना ही चाहिए। किन्तु मेरी तरफ से तुम मुक्त हो, आजाद हो। तुम्हारी माँ के सुझाव पर तुम्हारे नामकरण की एक कोशिश………..
आदि हो अनंत हो,
कोई छोर नही दिग-दिगंत हो तुम।
यश हो कीर्ति हो,
कोई सीमा नही असीम हो तुम।
जाति-धर्म, क्षेत्र-भाषा से परे हो,
कोई परिभाषा नही व्यापक हो तुम।
अनुनाद हो अंतर्नाद हो,
शब्दों के बंधन से आज़ाद हो तुम।
बेफिक्र हो बेबाक हो,
गमों से परे एक बेखौफ अंदाज हो तुम।
हमारी जान हो हमारा संसार हो,
कोई और नही हमारी पहचान हो तुम।
दो जिस्मों की एक जान हो,
हमारी कहानी का अंजाम हो तुम।
मां का अर्क हो पिता का हर्ष हो,
नीलिमा के यथार्थ और आनंद के निलिन्द हो तुम।
आर्ष-यथार्थ निलिन्द