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नशा तो तेरी संगत का था ऐ मुसाफ़िर, पीने में वो बात कहाँ ……
बोतल में बंद ये मय तो खामखां बदनाम है।
झूमने का मज़ा तेरे संग और था, अब वो पागलपन कहाँ………
क़दमों का लड़-ख़ड़ाना अब मेरा खामखां बदनाम है।
देर रात तक बेवजह, क़िस्से कहानियों का दौर वो सुनहरा था ……..
महफ़िलों में पैमानो का ये दौर खामखां बदनाम है ।
आँखो के एक इशारे में हो जाती थी हज़ार बातें और किसी को ख़बर नहीं ………..
ये बेगुनाह नज़रें मेरी अब खामखां बदनाम है ।
रास्ते बदले, बदली मंज़िलें और छूट गया वो साथ…….
उनकी यादों को पिरोकर बनी ये ग़ज़ल खामखां बदनाम है।