कौतुहूल वश मैने भी अपनी उंगलियों की गति बढ़ा दी | संडे की सुबह थी और कुछ खास करने को भी नही था इसलिए गूगल का सहारा लेकर इस रोमांचक ट्रिप से जुड़ी कई कहानियों को, जो किसी न किसी के व्यक्तिगत अनुभव ही थे, पढ़ डाली और उनके द्वारा साझा की गयी तस्वीरें भी देख डालीं | वाह. . . . . . . . . . . . . . . मजा ही अा गया, बेहद सुखद अहसास | मै तो कुछ देर के लिए वहीं पहुच गया | मनों बाइक पर सवार चला जा रहा हूँ | एक लम्बा रास्ता, सर्पाकार, पहाड़ियों के बीच से निकलता हुअा . . . . . . . . . जहां तक नज़र पहुचती केवल पहाड़ ही पहाड़, जिन पर सफेद बर्फ की चादर पड़ी हुई है और उनके बीच से गुजरते हुए रास्ते यूँ प्रतीत होते हैं कि किसी ने सफेद कागज पर एक लाइन खींच दी हो |
इन चित्रों के बीच से गुजरते हुए ये ख्याल अाया कि क्या ऐसी भी कई जगह हो सकती है ! सामान्य ज़िंदगी और भीड़ से इतनी दूर, न कोई शोर- शराबा, न कोई भाग-दौड़, सब कुछ ठहरा सा, सुलझा-सुलझा सा | केवल प्रकृति की गोद, चारों ओर पहाड़ , झील, बर्फ , सभी उलझनों से दूर एकान्त और शान्ति | यहीं लैप टॉप पर बैठे -बैठे लिखने से ही इतना सुकून मिल रहा है तो वहाँ पहुचने के बाद क्या होगा ! काश इसी अनुभव को मोक्ष कहते हैं, सभी इच्छाओं की समाप्ति ! इसी सन्नाटे मे विलीन हो जाने को, खो जाने को, अात्म, अात्मा और परमात्मा की खोज में ही ऋषि मुनि पहाड़ों की राह पकड़ते होगे और वर्षों की शांति की साधना के उपरांत खुद को एवं जीवन के उद्देश्य की प्राप्ति करके सिद्ध पुरुष बनते होंगे |
इच्छाओं ने पर फैलाये,
घर पर बैठे-२,
हम जाने कहां हो अाए।