Posted in CHAUPAAL (DIL SE DIL TAK)

चोला………(स्त्री के तन का)

एक पुरुष होकर ऐसे विषय पर लिखना, असंभव कार्य है। किंतु इस समाज का हिस्सा होकर और ऐसे पद पर रहते हुए जिसमे पब्लिक डीलिंग प्रमुख कार्य हो, मुझे विविध प्रकार के पुरुषों, स्त्रियों , बच्चों , युवा, प्रौढ़ और वृद्ध व्यक्तियों से मिलने , बात करने का मौका मिला। सामान्यतः मेरे पास सभी कुछ न कुछ समस्या लेकर ही आते हैं और यही मेरे लिए सबसे अच्छा अवसर होता है व्यक्ति विशेष को समझने का। ऐसे तो साधारण स्थिति में आप किसी को पहचान नही सकते किन्तु जब वह परेशान हो तो उस व्यक्ति का प्रकार, प्रकृति, चरित्र और चलन सब सामने आ जाता है। थोड़ा संयम रखकर उससे बात की जाए तो आप उस व्यक्ति का पूरा इतिहास खंगाल सकते हैं।
समस्या, उससे होने वाली परेशानी और उत्पन्न कठिनाई प्रायः दो तरह की होती है- एक स्त्री और दूसरा पुरुष के लिए। एक समान समस्या के लिए दो बिल्कुल ही अलग स्थिति, व्यवहार, क्रिया और उस पर सामाजिक प्रतिक्रिया । यहीं भेदभाव जन्म लेता है। ऐसा नही है कि ये भेदभाव केवल स्त्री को ही झेलना है बल्कि पुरुष भी इसका बराबर शिकार है। किंतु फर्क इतना है कि पुरुष प्रधान समाज मे स्त्री को बोलने का हक़ नही है और पुरुष अपना दुख बोल नही सकता। स्त्रियों से संबंधित गड़बड़ियों को तूल बनाकर उछाला जाता है कि इससे समाज की छवि बिगड़ेगी और न जाने क्या क्या……! जबकि पुरुष से संबंधित चीजों को दबा दिया जाता है यह कहकर कि अबे! तुम कैसे आदमी हो?
लिखने को तो दोनों पर ही बहुत है पर आज का विषय हैस्त्री! पढिये और अपने विचार व्यक्त करिये……
कहने को अबला हूँ
बेचारी हूँ लाचार हूं।
करते मेरा शिकार
मिटाने को अपनी हवस
कितनो को गिरते देखा है
खुद के सामने।
कमजोर हो तुम
या
अबला हूँ मैं…..?
कहने को कमजोर हूँ पर
लड़ी गयीं लड़ाइयाँ
मुझको लेकर
करने को मुझ पर नियंत्रण
दिखाने को मर्दानगी
भरने को हुंकार ।
खोखले हो तुम
या
कमजोर हूँ मैं…..?
रूप हूँ सौंदर्य हूँ
कोमलांगी हूँ
फूल भी शर्मा जाएँ कि
चढ़ते यौवन का श्रृंगार हूँ।
किन्तु कुचला गया मुझे
दिखाने को अपना सम्मान।
कुत्सित हो तुम
या
श्रृंगार हूँ मैं….?
हिल जाये धरा
भूचाल हूँ।
पिघला दूँ चट्टानों को
वो आग हूँ।
पर देती तुझे ममता
सँवारती तेरा भविष्य……
मासूम हो तुम
या
शक्ति का रूप हूँ मैं….?
चलूँ सड़क पर
देखो हम पर नज़रें हज़ार हैं
गन्दगी तुम्हारी आँखों में
देखो बेशर्म हम हैं।
कपडे तन ढकते हैं
या चरित्र तय करते हैं ?
गंदा मन तुम्हारा
या
सिर्फ जिस्म हूँ मैं….?
लिखते हो गीत
मेरे सुन्दर नयनों पर
पलकों पर
होंठों पर
बालों पर
लचकती कमर पर।
मन और भावों को भी समझते हो
या
अंगों का सिर्फ एक गट्ठर हूँ मैं….?
आगे बढ़ने को
नाम रोशन करने को
लड़ते नहीं सिर्फ खुद से
होता संघर्ष समाज से
पहुँच कर ऊंचाइयों पर
होते हम सदा अकेले।
साथ चलने की बर्दाश्त तुम में नहीं
या
असाधारण हूँ मैं ?
समानता की नहीं गुंजाइश
भेद को यहाँ देखो कई हैं तत्व
औरत की बराबरी को
पुरुषों में नहीं इतना पुरुषत्व।
समानता से होगी सिर्फ तुलना इक की दूजे से
अब बात हो सिर्फ सम्मान की।
बात रखने की इजाजत है हमें
या
मेरी हर बात गलत है….?
©️®️अनुनाद/आनन्द कनौजिया/२८.०२.२०२१
फोटो: साभार इण्टरनेट
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नारी शक्ति…

नारी तुम गंगा हो
देती संसार को जीवन हो
बनी रहे गति जीवन की
तुम वो बहता प्राण हो….
नारी तुम माँ गंगा हो!

नारी तुम चण्डी हो
हाहाकार मचाती प्रलय हो
जब पाप बढ़े धरा पर
लेती रूप विकट हो…
नारी तुम माँ चण्डी हो!

नारी तुम कोमल हो
मृदुल, मधुर, मनभावन हो
सख्त सूखे जीवन में
वर्षा की फुहार हो….
नारी तुम मन मोहक हो!

नारी तुम साथी हो
चलने में जिसके साथ
पथ लगता आसान
सहज हो जाता सफर…..
नारी तुम मेरा हमसफर हो!

नारी तेरे रूप अनेक
मैंने महसूस किये हर एक
माँ, पत्नी, बहन, बेटी, और दोस्त
जिनसे मेरी दुनिया का रंग चोखा हो….
नारी तुम रंग अनोखा हो!

तुझे न पहचानने की
पुरुष करता आया भूल
तुझे कुचलता समझकर दुर्बल
मद में रहता अपनी चूर
नासमझ पुरुष अभागा है…
नारी क्षमा करना, याचना मेरी है!

तू है ऊर्जा तू है शक्ति
देख जिसे उमड़ती भक्ति
बखान करूँ शब्दों से मैं
मुझमें इतनी कहाँ है शक्ति….
नारी तू शक्ति है!

नारी तू इस जग की शक्ति है…
उमड़ती तुझ पर मेरी भक्ति है
नारी तू शक्ति है।

©️®️अनुनाद/आनन्द कनौजिया/२७.०२.२०२१

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प्रेम गीत!

प्यार हो तो देखो बिल्कुल तेरे जैसा हो
भले मिलें न कभी पर साथ कुछ ऐसा हो
मैं अगर कभी ख्वाबों में भी देख लूँ तुझको
स्पन्दन मेरे शरीर में तुझको छूने जैसा हो।

दिल की ड्योढ़ी पर तूने जो रखे थे कदम उस दिन
करूँ अभिनंदन उन पलों का उन्हें आँखों से चूमता हूँ,
उस पहली मुलाकात को मैं समझ मील का पत्थर
मानकर देव उस पत्थर को मैं तब से रोज़ पूजता हूँ।

जो न कह पाया तुझे वो पूरी दुनिया को सुनाता हूँ
मैं जब बहकता हूँ तो बस तुझ पर गीत लिखता हूँ
पीर दिल की है जो अब दिल में रखना मुश्किल है
बाँटने को दुख मैं महफिलों में शेरों शायरी करता हूँ।

मिल कर भी तुमसे क्यूँ बिछड़ना सा प्रतीत हो
दिल भारी जुबाँ खामोश दिन कैसे व्यतीत हो
वाद्य यंत्र ये दिल और धड़कन मेरी संगीत हो
मैं गुनगुनाता रहूँ जिसे हाँ तुम वो प्रेम गीत हो।

©️®️अनुनाद/आनन्द कनौजिया/२४.०२.२०२१

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सूनापन!

सूनी आंखों का सपना
इनमें अब कुछ भी सूना न हो

कोरे इस दिल का
कोई कोना अब कोरा न हो

टूटा हो बिखरा हो
अब यहां सब कुछ बेसलीका हो

सुलझन का हम क्या करें
छोर सभी अब उलझे उलझे हो

एक हलचल हो धड़कन में
दिल में अब कुछ सूना न हो।

©️®️अनुनाद/आनन्द कनौजिया/१८.०२.२०२१

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साहित्य और महिला लेखक

इग्नू की सहायता से हिन्दी में एम० ए० कर रहा हूँ। कल पहले वर्ष के सत्रांत का तीसरा पर्चा है। साल भर तो पढ़े नहीं लेकिन महीने भर से थोड़ा बहुत पढ़ लिए हैं। मतलब कि पाठ्यक्रम के हिसाब से थोड़ा और पास होने के हिसाब से अधिक। लेखन में पुरुष लेखकों के साथ महिला लेखकों को भागीदारी भी पढ़ी। अच्छा लगा कि महिलाएँ भी कंधे से कंधा मिला कर चल रही हैं। मैं तो चाहता ही हूँ कि कोई महिला मुझसे कन्धे से कन्धा मिलाकर चले😉

खैर…….! निष्कर्ष एक ही निकला। महिलाएँ पुरुषों से कहीं आगे हैं। पुरुषों का जीवन बिना औरत के अधूरा है। जबकि औरतों को पुरुषों की कोई जरूरत नहीं। लड़ने के लिए दो महिलाएँ ही काफी हैं जबकि पुरुषों को महिलाओं की जरूरत पड़ती है ………😁😋।

हाहा……🤣😅।

कोई भी उपन्यास, कहानी, काव्य और कुछ भी उठा लीजिए, मेरे द्वारा ऊपर जो निष्कर्ष निकाला गया है उससे आप शत प्रतिशत ताल्लुक रखते हुए मिलेंगे। महिला लेखकों को पढ़ने के बाद तो इस विचार को मान्यता सी मिल गयी। स्त्रियाँ आजादी की बात तो करती हैं किंतु यह आज़ादी वह अपने लिए नहीं मांगती अपितु इस पुरुष प्रधान समाज को दिखाने के लिए। बात गम्भीर है। स्त्रियों की इस इच्छा के लिए भी सदियों से चले आ रहे पितृसत्तात्मक समाज ही मुख्य कारण है।

बात गम्भीर है इसलिए व्यंग्य का पुट लेना पड़ा। सोचिएगा …..!

©️®️अनुनाद/आनन्द कनौजिया/१७.०२.२०२१