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एक!

वैसे तो एक और एक मिलकर दो होते हैं पर तुम्हारे और मेरे रिश्ते की गणित भी अजब है !

यहाँ…..

तुम भी “एक”, मैं भी “एक” और हम दोनों मिलकर भी “एक”!

शायद इस एक के अलावा जो “एक” अदृश्य है वही प्यार है।

या

मुझमें और तुझमें जो अनचाही/ग़ैर-ज़रूरती/नापसंद, चीज़ें/आदतें/इच्छाओं को त्याग कर जो कुछ भी हम दोनों में कम हुवा था उसे हम दोनों ने मिलकर पूरा कर दिया और फिर सदा के लिए “एक”हो गए।

वैसे प्यार गणितीय तर्कों को नहीं मानता और मेरा रसायन शास्त्र कमजोर है, इसलिए गणितीय फेरों में उलझा हुवा हूँ। वैसे हमारे रिश्ते की ऊपर की हुयी गणितीय व्याख्या भी कम व्यापक नहीं है।

©️®️एक/अनुनाद/आनन्द कनौजिया/३०.०९.२०२१

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आतुर

तेरे स्वागत को
आज होकर तैयार
खड़े हैं
सब इंतज़ार में,
ये मौसम…
ये बारिश…
ये चाय…
और हम भी…
बोलो…
मिलने को तुमसे
गुज़ारिश
और कैसे करते?
इससे ज़्यादा
आतुरता
और कैसे दिखाते?
स्वागत को तुम्हारे
और किस-२ को
बुलाते?
©️®️आतुर/अनुनाद/आनन्द कनौजिया/१६.०९.२०२१

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इस शहर में…

इस शहर में जीने के हैं रास्ते कई
पर अपनी शर्तों पर ज़िन्दगी यहाँ आसान नहीं।

जी हुज़ूरी में मिलती नित तरक़्क़ी नई
पर ग़लत को ग़लत कहना यहाँ आसान नहीं।

इधर-उधर बनाए रखिए नज़रें कई
काम से काम रखने से होता कोई काम नहीं।

ऊँचाई पर पहुँचने को, की कोशिशें कई
इस दौड़ में भीड़ से खुद को बचना आसान नहीं।

बनने को ख़ास हमने बदले कलेवर कई
इतने बदले कि अब अपनी शक़्ल तक याद नहीं।

इस शहर में रहते हैं बड़े नाम कई और
इन नामों में अपना नाम याद रखना आसान नहीं।

©️®️इस शहर में/अनुनाद/आनन्द कनौजिया/१४.०९.२०२१

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कब लिखते हो?

वो पूछते है कि कब लिखते हो?
जब तुम जीवन की परेशानियों में बस परेशान होते हो,
तब मैं लिखता हूँ।

वो पूछते है कि कब लिखते हो?
जब बाहर का शोर मेरे भीतर के शोर के स्तर पर पहुँचता है,
तब मैं लिखता हूँ।

वो पूछते है कि कब लिखते हो?
जब माहौल का तनाव मेरे हृदय को छू कर चला जाता है,
तब मैं लिखता हूँ।

वो पूछते है कि कब लिखते हो?
जब कोई क्षुब्ध हृदय व्यथा चाहकर भी नहीं कह पाता है,
तब मैं लिखता हूँ।

वो पूछते है कि कब लिखते हो?
जब मैं बेहद खुश होता हूँ तो मैं उस पल को बस जीता हूँ,
तब मैं नहीं लिखता।

सुख से ज्यादा मुझे दुःख पसंद हैं!
संघर्ष के उन पलों में मैं अपना सर्वोत्तम संस्करण होता हूँ,
तब मैं लिखता हूँ।

©️®️लिखना/अनुनाद/आनन्द कनौजिया/११.०९.२०२१

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तेरा गाँव!

ज़िन्दगी के शेष सफ़र में काश
एक राह हमें ऐसी भी मिल जाए
हम निकले किसी और काम से
और रास्ते में तेरा गाँव आ जाए।

लाज शर्म नियम क़ायदे सब छोड़
होकर ढीत द्वार तेरे हम आ जाएँ
पाकर भनक हमारे आने की बस
तू बेसुध द्वार पार दौड़ी चली आए।

वर्षों की बिछड़न में देखे ख़्वाब सभी
हे प्रेम देव ऐसे भी सजीव हो जाएँ
जिस चेहरे को रोज़ तराशा सपनों में
वो स्वप्निल चेहरा सामने आ जाए।

ललित भावों से होकर हर्षित पुलकित
हृदय हमारा यूँ प्रफुल्लित हो जाए
मन के तपते शुष्क मरुस्थल पर ज्यूँ
प्यार की रिमझिम बारिश झर जाए।

©️®️तेरा गाँव/अनुनाद/आनन्द कनौजिया/१७.०८.२०२१