कैसे समाज का देखो मैं हिस्सा हूँ किसको दिखलाता हूँ अपनी प्रगति मैं सोऊँ मखमल, वो सोए सड़क हृदय वेदना अश्रुपूर्ण, कैसी मेरी नियति।
भूखे-नंगे रोते-बिलखते बचपन से फटे-चीथड़ों में लिपटे कोमल तन से हाथ पसारे इन नन्हें कोमल हाथों से देख आँख में इनके गड़ जाता हूँ शर्म से।
आँखों की ये खोई चमक जेब में हाथों का खालीपन दाल-रोटी की खोज में देखो खो गया कीमती बचपन।
बचपन जो देख सकता था सपने सपनों में बुन सकता था भविष्य तंग हाथ से सुलझाने में है खोया इस अनसुलझी भूख का रहस्य।
ऐसा कीमती बचपन सँवारने को क्यों नहीं हम हाथ लगा सकते इतनी अच्छी मिट्टी को गढ़ने को क्यों नहीं कुम्हार हम बन सकते?
बनना है हमको विश्वगुरु दिखलाना है जग को पथ भूखा बचपन निराश मन कैसे बढ़ेगा ये विशाल रथ?
आधार कार्ड का देश हमारा पता है सबका पता ठिकाना किसकी कितनी जरूरत है नहीं कठिन है अब बतलाना।
पकड़-पकड़ कर सबको तुम अब रोजी-रोटी दे सकते हो खोने न पाए अब कोई बचपन सुदृढ़ व्यवस्था कर सकते हो।
न दिखे कोई अब भीख माँगता विश्वगुरु तुमसे इतना तो बनता एक भी आदमी बिना काम के ढूढने से भी अब न हो दिखता।
हर हाथ को काम हो हर बचपन को हो शिक्षा विश्वगुरु बनने की तब पूरी होगी अभिलाषा।
मुक्तक
“वो कहते हैं देखो हो रहा चंहुओर विकास हमने ही है दिखलाई सूखी आँखों को आस मैं भी बोलूँ हँस कर इनसे, ऐ मेरे सावन के अन्धे बन्द आँखे खुल चुकी, झूठ तुम रखो अपने पास।”
छुटियाँ कितनी होनी चाहियें, इस पर पुनः विचार करने की जरूरत है। मेरे अनुसार सप्ताह में चार दिन काम और तीन दिन छुट्टी होनी चाहिए। अब आप सोच रहें होंगे कि अब काम ही काहे करोगे , पूरी छुट्टी ही ले लो। ऐसा नहीं है। एक व्यक्ति की ज़िंदगी में कार्य के अलावा भी और कई ज़िम्मेदारियाँ होती है। जैसे पारिवारिक, सामाजिक, और स्वयं अपने लिए भी कुछ समय होना जरूरी है।
चार दिन आदमी १०-१२ घंटे प्रत्येक दिन कार्य कर सकता है। मन लगाकर, जी तोड़कर। उसके बाद तीन दिन की छुट्टी में एक दिन व्यक्ति समाज के लिए रख ले। इसमें मित्र, रिश्ते-नाते, सामाजिक/राजनीतिक संगठनों से मिलना मिलना किया जा सकता है। दूसरा दिन परिवार के लिये। इसमें परिवार के साथ घर पर या बाहर जाया जा सकता है। परिवार के किस सदस्य के मन में क्या चल रहा है या फिर किस परिस्थिति से गुज़र रहा है ये सब समय देने से ही पता चलेगा। इससे आप परिवार को एक बेहतर आकर प्रदान कर सकते हैं।
और अब तीसरा दिन! पूरा का पूरा अपना। किसी से मतलब नहीं। सारा दिन स्वयं की तैयारियों में। अगले हफ्ते सात दिनों में क्या पहनना है! कपड़ों को तैयार करना! चेहरा और शरीर पर ध्यान देना! तेज आवाज में गाने सुनना, मूवी देखना, किताब पढ़ना, खाना बनाना, अपनी गाड़ी को व्यवस्थित करना, खूब सोना, और फिर रात में अगले दिन ऑफिस की तैयारी। मुझे पता है कि आप इससे सहमत होंगे। अब भला बताइए एक दिन की छुट्टी में कुछ होता है। पूरा दिन तो अगले हफ्ते की तैयारियों में ही निकल जाता है। जितना व्यक्ति पिछले छह दिनों में काम करके नहीं थकता उतना वह एक दिन की छुट्टी में थक जाता है। हें नहीं तो!
इस पोस्ट को हल्के में मत लीजियेगा। यदि कोई नीति नियन्ता इस पोस्ट से होकर गुजर रहें हो तो उनसे दण्डवत लेटकर अनुरोध है कि इस पर विचार कर लें। मेरी दुवा लगेगी।
क्या तीन दिन की छुट्टी ज्यादा है? अच्छा? कोई न! तीन न सही तो दो दिन की ही दे दीजियेगा! वो ऐसा है ना कि हम पहले ही सोच लिए थे कि तीन मांगेंगे तो दो मिलेगा! एक दिन हम भैया की साली से मिलने के लिए मांग लिए थे 😉 हमारा तो समाज वहीं हैं।😜
नोट:-छुट्टी नहीं भी मिलेगी तो हम क्या ही उखाड़ लेंगे! काम में लापरवाही तो हर कर्मचारी अपना हक तो समझता ही है और हमारे देश में नौकरी भी वही ढूंढी जाती है जिसमे काम कम हो या बिल्कुल न हो।😎😁