Posted in CHAUPAAL (DIL SE DIL TAK)

ज़िन्दगी तुझे करीब से देखा…

बीती इस उम्र में एक अरसा देखा
नंगे पैरों से चलकर आसमाँ देखा
साइकिल की कैंची में घुसकर मैंने
इन हाथों को स्टीयरिंग घुमाते देखा।

अनाज को खाने लायक बनाने में
होती हज़ार कोशिशों को भी देखा
जाँता-पहरुआ, मथनी से आगे बढ़
आटे-चावल का मैंने पैकेट भी देखा।

सुबह-सुबह ताल किनारे पंगत में
हमने लोगों को निपटते भी देखा
भर-दम उसी तलैया में नंगे बदन
बच्चों की टोली को नहाते भी देखा।

कंचे, खो-खो, कबड्डी, गिल्ली-डण्डा
कुश्ती करते मिट्टी में सने हुए देखा।
चप्पल काट चक्कों की गाड़ी बनाना
चौड़े में वही गाड़ी लेकर चलते देखा।

दुग्धी, खड़िया और लकड़ी की तख्ती
सेंटे की लकड़ी से लिखते हुए भी देखा
निब का पेन और चेलपौक की स्याही
पायलट पेन के लिए खुद को रोते भी देखा।

हाईस्कूल, इंटर बोर्ड के पेपर का इंतजार
पढ़ाकू लड़को की आँखों मे खौफ़ को देखा
दिन रात रगड़ कर परीक्षा खूब दिए पर
कम आए नम्बरो पर खुद को रोते भी देखा।

वो जवानी की दहलीज़ पर आकर हमने
कॉलेज काशी बी एच यू घाट का नजारा देखा,
बाबा विश्वनाथ और संकट मोचन का दुलार
इसके साथ इश्क़ की गली से गुजरता देखा।

ज़िन्दगी बेहद खूबसूरत और लाजवाब है
हमने इसके हर रूप को गंगा के पानी में देखा
इंसान मिट्टी का है बहुत मजबूत मगर देखो
दिल से होकर मजबूर इसे हमने रोते भी देखा।

थी तंगी चारों तरफ मगर कभी कोई डर नही
हमने आईने में खुद को सदा मुस्कुराते देखा
जीवन सरल करने के जब से पाए साधन सभी
कट रही डर-डर कर ज़िन्दगी को भी देखा।

रहे गन्दे-सन्दे न कोई हाइजीन का शऊर
हमने महीनों एक जीन्स को पहनते देखा
मुँह को ढककर अब पल-पल धोते हैं हाथ
हमने हर रोज पहने कपड़ों को बदलते देखा।

दिलों की दूरी तो पहले भी कम न थी
हमने लोगों को छुप कर नज़रें चुराते देखा
हे कोरोना तूने खेल बड़ा ही कमाल खेला
अब लोगों को खुल कर दूरी बनाते देखा।

डरते-घबराते फिर भी खुद को सम्हालते
तेरी क्रूरता में भी स्वयं को निखरते देखा
सीख ही लेते हैं हम हर परिस्थिति में जीना
ऐ ज़िन्दगी तुझे, हमने बेहद करीब से देखा।

बीती उम्र के इस छोटे सफर में हमने
ऐ ज़िन्दगी तुझे, बेहद करीब से देखा।

©️®️ज़िन्दगी/अनुनाद/आनन्द कनौजिया/२३.०५.२०२१

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तेरा जाना…!

कुछ अच्छे लोगों का इतनी जल्दी,
ऊपर चले जाना भी अच्छा हुआ।
माना कि जमीं की खबर आसमां में
पहुँचाने का ये तरीका पुराना हुआ।।

तकनीकें नई खूब हैं सन्देश भेजने की मगर,
वो अपने खुदा का अंदाज जरा पुराना ठहरा।
दुवाएँ कुबूल करता है देखो वो खुद सामने से
वो खुदा भी तो अपने बंदों का दीवाना ठहरा।।

उम्मीद है मेरे साथी तू है वहाँ ऊपर
कि अब सब कुछ सम्भाल लेगा।
बरसेगी रहमत वहाँ तेरे होने से
खुदा का तू, थोड़ा हाथ बँटा लेगा।।

दुःख है मुझे तेरे जाने और
हम दोनों के अकेले हो जाने का।
मत घबराना तू वहाँ कि कौन सा
मेरा रिश्ता इस जमीं से जमाने का।।

(कोरोना काल मे साथ छोड़ कर जाने वाले कुछ महान शख्शियतों को समर्पित।)

©️®️तेरा जाना/अनुनाद/आनन्द कनौजिया/०३.०५.२०२१

फोटो : साभार इंटरनेट

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ज़िन्दगी में कभी लॉकडाउन नहीं होता…

साँसे तो हमें रोज लेनी है
भूख भी रोज ही लगनी है
सच है कि साँस उखड़ने से पहले
ज़िन्दगी में कभी लॉकडाउन नहीं होता…

मेहनत रोज ही करनी है
रोटी भी रोज कमानी है
उन्हें चलाने हैं फावड़े, कन्नी और बँसुली
मजदूरों की ज़िन्दगी में लॉकडाउन नहीं होता…

नदिया रोज है बहती
हवा भी रोज है चलती
करने को दिन-रात सूरज-चाँद रोज निकलते
इस प्रकृति के चक्र का लॉकडाउन नहीं होता…

रसोई रोज लगती है
थालियाँ रोज सजती है
रखने को ख्याल वो दिन भर लगी रहती
माँ की ज़िन्दगी में लॉकडाउन नहीं होता…

जीवन का नाम हैं चलने का
नहीं रुकने का नहीं ठहरने का
दौर मुश्किल, जरूरत है समझने की
इन दूरियों से नजदीकियों का लॉकडाउन नहीं होता…

तुम एक पल को बैठ सकते हो
अपने घर में रुक भी सकते हो
जिन्हें जरूरी है निकलना उनको मौका दो
आवश्यक सेवाओं का कभी लॉकडाउन नहीं होता…

प्रगति ने एक एक दौड़ शुरू की है
न चाहते हुए हमने दौड़ जारी रखी है
मौका मिला है रुक कर साँस लेने को
मुड़कर देखने को समय में लॉकडाउन नहीं होता…

किस्मत हमारी कितनी न्यारी है
शब्दों और कलम से हमारी यारी है
लिखना-पढ़ना ही है जीविका हमारी
घर बैठ काम करने को सबको लॉकडाउन नहीं मिलता…

©️®️लॉकडाउन/अनुनाद/आनन्द कनौजिया/०२.०५.२०२१

फोटू: साभार इंटरनेट

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अब न जी पायेंगे…!

अब कोरोना से बच भी गए तो आगे कैसे जी पायेंगे,
जीना सीख भी गए तो पहले सा अब न जी पायेंगे।

दिल टूटता है गर तो कैसे भी इसे जोड़ ही ले जायेंगे,
तेरे जाने से चूर हुए दिल को भला कैसे जोड़ पायेंगे।

हमारे जीने में जो रंगत थी बरखुरदार तेरे होने से थी,
बेरंग इस दुनिया में तेरा जैसा रंग हैम कैसे ढूंढ़ पायेंगे।

तू साथ नहीं था फिर भी मिलने की उम्मीद तो रहती थी,
अब तेरी यादों का बोझ लेकर अकेले कैसे चल पायेंगे।

एक उम्र बीती है तेरे साथ सब कुछ बस तेरे होने से था,
इशारों में हो जाती थी बातें, किसी नए को क्या-२ समझायेंगे।

अब इस मौत की सुनामी से बच भी गए तो कैसे जी पायेंगे,
गोता लगाना सीख भी गए तो अकेले सतह पर क्यों आयेंगे।

अब कोरोना से बच भी गए तो आगे कैसे जी पायेंगे,
जीना सीख भी गए तो पहले सा अब न जी पायेंगे।

©️®️महामारी/अनुनाद/आनन्द कनौजिया/३०.०४.२०२१

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रिश्ते-नाते

भावनावों के आवेग में डूबता-उतराता हुआ पिछले २४ घण्टो में कई रिश्तों के सम्पर्क से गुजरता हुआ फिलहाल बिस्तर पर हूँ। सर्दी बहुत है। एक कम्बल और एक रजाई के युग्म के अंदर खुद को रखकर लिख रहा हूँ। पैर मस्त गरम हैं और कान थोड़े ठंडे। दिल गोताखोरों की तरह गोते ले रहा है। बहुत कुछ लिखना चाहता हूँ पर भावनाओं के इस भँवर में सब कुछ समेट कर एक जगह रखने में खुद को नाकाम पा रहा हूँ। बिकुल असहाय…

२०१२ के बाद से मशीनी ज़िन्दगी जी रहा था! सरकारी घर, कार्यालय और फ़ोन! बस यही जीवन था! सारी जिम्मेदारियाँ बस फ़ोन से ही निपट रही थी। लेकिन अब जाकर जब लोगों के बीच, अपनों के बीच, बिना किसी काम के, फालतू बैठने/मिलने के एहसास से दो-चार हुआ हूँ तब जाकर ज्ञान चक्षु खुले हैं कि हम क्या खो दिए पिछले आठ सालों में! चल रही महामारी तो मेरे जैसे रिज़र्व व्यक्तित्व वाले व्यक्ति के लिए तो वरदान साबित हुई थी। एक कारण मिल गया था अकेले रहने का! लेकिन अगस्त २०२० के बाद से फुरसत के कुछ पल जो मिलें और नीलिमा जी के घूर कर देखने के बाद हमने जो जड़त्व के नियमों का रिवीजन किया है न… फिर तो पूँछिये मत! दिल और दिमाग बिल्कुल हिल गए हैं। रिश्तों का, मिलने-मिलाने का, भावनाओं का ऐसा हैवी डोज़ मिला है कि पूरे नशे में हैं… कुछ समझ नहीं आ रहा!

मैं रिश्तों को सामने से नहीं जीता! फ्यूचर मोड में जीता हूँ! फ्यूचर मोड? समझाता हूँ! आप मुझसे मिलिए, मैं मुस्कुराहट के साथ गर्मजोशी से मिल लूँगा! इतना अपनत्व कि सदियों से जानते हो जैसे! जितनी भी देर साथ रहेंगें कि कोई तीसरा देख ले तो बोले बड़ा याराना है इन दोनों में। फिर थोड़ी देर बाद जब अलग हुए तो खुद से पूँछता हूँ कि कौन था वो आदमी? 😜 मैं इस डर में मुस्कुरा के मिल लिया कि सामने वाले को बुरा न लगे! बस यहीं से रिश्ता पक्का। भविष्य में जब कभी भी वो व्यक्ति मुझसे मिलता है तो इतनी आत्मीयता से कि पूँछिये मत! और मैं फिर वही ढाक के तीन पात! कौन था ये आदमी?😆

सरयू नदी के बगल का रहने वाला हूँ। नदियों से खासा लगाव! कैसा? मुझे भी नहीं पता! किंतु जब भी बगल से गुजरता हूँ एक सुकून सा मिलता है। गहरा सुकून! मन करता है कि इनके सानिध्य में बैठा रहूँ। घण्टों! न कुछ बोलना, न कुछ सुनना! बस बहती धारा को देखना…

कल से बेहद शान्त हूँ! गोते लगा रहा हूँ…. भावनाओं में!

अनुनाद/भावनात्मक आनन्द/०२.१२.२०२०