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भूल गए!

दिन, तिथि, जगह, शाम, सब मुक़र्रर थी मिलने की,
पलों के साथ में उम्र भर के साथ का वादा लेना भूल गए।

मिलने से ज़्यादा ख़ुशी तो हमें उनके मिलने के वादे से थी,
इतनी ख़ुशी में हम दिल की बात कहना ही भूल गए।

उनके आते ही न जाने दिमाग़ ने ये कैसी हरकत की,
मिलन के पलों को गिनने में हम उन्हें जीना भूल गए।

सामने वो और उनकी कशिश से भरी मद्धम मुस्कान थी,
उनकी मद भरी आँखों में हम बस सारी तैराकी भूल गए।

इतने सलीके से बैठे हैं सामने जैसे सफ़ेद मूरत मोम की,
इधर हम हाथ-पैर-आँखो को सम्भालने का तरीक़ा भूल गए।

गला ऐसा फिसला कि बोले भी और कोई आवाज़ न की,
धड़कनों के शोर में अपनी ही आवाज़ को सुनना भूल गए।

दिन, तिथि, जगह, शाम, सब मुक़र्रर थी मिलने की,
इतनी ख़ुशी में हम दिल की बात कहना ही भूल गए….
पलों के साथ में उम्र भर के साथ का वादा लेना भूल गए।

©️®️भूल गए/अनुनाद/आनन्द/२६.०५.२०२२

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मैं, बारिश और इश्क़…

बारिश
जब भी बरसती है
मुझ पर यूँ गिरती है
जैसी सूखी पथराई मिट्टी पर
छन से
और फिर गहरे उतर जाती है
रिसती चली जाती है
भीतर तक
धीरे-धीरे
और बदल देती है मुझे
कर देती है नम
इस पत्थर दिल को
जैसे तुमने किया था….

बारिश
जब भी बरसती है
मुझ पर यूँ गिरती है
जैसे सूखे धूल जमे पत्तों पर
धुल जाती है सारी धूल
बहा ले जाती है सारी गंदगी
और चमक उठते हैं पत्ते
इसी तरह जब तुम्हारी यादों पर
पड़ने लगती है धूल
तो ये बारिश करती है कमाल
भिगोती है ये मुझे और फिर
चमक उठती हैं तेरी यादें
मेरे मानस पटल पर।

बारिश
जब भी बरसती है
मुझ पर यूँ गिरती है
आती है खुशबू
सोंधी-सोंधी
मिट्टी की
हो उठता हूँ तरो-ताजा
महक उठता हूँ भरपूर
और खो जाता हूँ
कहीं दूर नीरव में
बिल्कुल वैसे जैसे
पहली बार तुम बगल में बैठे थे।

बारिश
जब भी बरसती है
मुझ पर यूँ गिरती है
पैदा करती हैं कम्पन
होता है स्पंदन
उठती है सिहरन
मचलता है चितवन
संभालने को धड़कन
मैं करता हूँ प्रयत्न
साधता हूँ मैं खुद को
बिल्कुल वैसे जैसे
तेरी पहली छुवन।

बारिश
जब भी बरसती है
मुझ पर यूँ गिरती है
जैसे ……

©️®️बारिश का असर/अनुनाद/आनन्द कनौजिया/२९.०५.२०२१

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ज़िन्दगी तुझे करीब से देखा…

बीती इस उम्र में एक अरसा देखा
नंगे पैरों से चलकर आसमाँ देखा
साइकिल की कैंची में घुसकर मैंने
इन हाथों को स्टीयरिंग घुमाते देखा।

अनाज को खाने लायक बनाने में
होती हज़ार कोशिशों को भी देखा
जाँता-पहरुआ, मथनी से आगे बढ़
आटे-चावल का मैंने पैकेट भी देखा।

सुबह-सुबह ताल किनारे पंगत में
हमने लोगों को निपटते भी देखा
भर-दम उसी तलैया में नंगे बदन
बच्चों की टोली को नहाते भी देखा।

कंचे, खो-खो, कबड्डी, गिल्ली-डण्डा
कुश्ती करते मिट्टी में सने हुए देखा।
चप्पल काट चक्कों की गाड़ी बनाना
चौड़े में वही गाड़ी लेकर चलते देखा।

दुग्धी, खड़िया और लकड़ी की तख्ती
सेंटे की लकड़ी से लिखते हुए भी देखा
निब का पेन और चेलपौक की स्याही
पायलट पेन के लिए खुद को रोते भी देखा।

हाईस्कूल, इंटर बोर्ड के पेपर का इंतजार
पढ़ाकू लड़को की आँखों मे खौफ़ को देखा
दिन रात रगड़ कर परीक्षा खूब दिए पर
कम आए नम्बरो पर खुद को रोते भी देखा।

वो जवानी की दहलीज़ पर आकर हमने
कॉलेज काशी बी एच यू घाट का नजारा देखा,
बाबा विश्वनाथ और संकट मोचन का दुलार
इसके साथ इश्क़ की गली से गुजरता देखा।

ज़िन्दगी बेहद खूबसूरत और लाजवाब है
हमने इसके हर रूप को गंगा के पानी में देखा
इंसान मिट्टी का है बहुत मजबूत मगर देखो
दिल से होकर मजबूर इसे हमने रोते भी देखा।

थी तंगी चारों तरफ मगर कभी कोई डर नही
हमने आईने में खुद को सदा मुस्कुराते देखा
जीवन सरल करने के जब से पाए साधन सभी
कट रही डर-डर कर ज़िन्दगी को भी देखा।

रहे गन्दे-सन्दे न कोई हाइजीन का शऊर
हमने महीनों एक जीन्स को पहनते देखा
मुँह को ढककर अब पल-पल धोते हैं हाथ
हमने हर रोज पहने कपड़ों को बदलते देखा।

दिलों की दूरी तो पहले भी कम न थी
हमने लोगों को छुप कर नज़रें चुराते देखा
हे कोरोना तूने खेल बड़ा ही कमाल खेला
अब लोगों को खुल कर दूरी बनाते देखा।

डरते-घबराते फिर भी खुद को सम्हालते
तेरी क्रूरता में भी स्वयं को निखरते देखा
सीख ही लेते हैं हम हर परिस्थिति में जीना
ऐ ज़िन्दगी तुझे, हमने बेहद करीब से देखा।

बीती उम्र के इस छोटे सफर में हमने
ऐ ज़िन्दगी तुझे, बेहद करीब से देखा।

©️®️ज़िन्दगी/अनुनाद/आनन्द कनौजिया/२३.०५.२०२१

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रात, खिड़की, रेलगाड़ी और कुछ ख्याल तेरे!

आज भी
जब मैं
सुनता हूँ
आवाज
रेलगाड़ी की
तो एक चमक
कुछ पल को
भर जाती है
मेरी आँखों में
दिल को होती है
उम्मीद कि
तुम भी लौट आओगे
एक दिन
इसी रेलगाड़ी से…

उम्मीद
हो भी क्यूँ न!
आखिरी बार
तुम्हारे साथ थे
रेलवे स्टेशन पर
छोड़ आए थे तुम्हें
रेलगाड़ी में…
आज भी मुझे
याद है
तुम्हारी वो आँखे
परेशान चेहरा
पैरों की हलचल
हथेलियों का उलझना
हृदय की वेदना
और मेरा
रखकर दिल पर
बहुत भारी पत्थर
तुमको जबरन
गाड़ी में चढ़ाना
जब रेलगाड़ी
चलने को हुई थी।

उम्मीद
तुम्हारे लौटने की
बनी रहेगी
तब तक
जब तक
रहेंगे ये
स्टेशन
और
चलती रहेगी
एक भी
रेलगाड़ी।

आज भी
जब मैं
सुनता हूँ
आवाज
किसी रेलगाड़ी की……

©️®️रेलगाड़ी/अनुनाद/आनन्द कनौजिया/२६.०३.२०२१

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साथ…(खुद का)

अकेले आये थे
अकेले जाना है
ये जीवन भी हमें
अकेले ही बिताना है।

इर्द-गिर्द की भीड़ छलावा
अपना न कोई नाता है
अकेलेपन का गीत
इसीलिए तो भाता है।

खुद का साथ
खुदा का साथ
जीवन सुख में
अपना ही हाथ।

ज्ञान का अभिमान
दिखाता अज्ञान
झुककर देखा
तभी मिला सम्मान।

बन्द मत करो
चार दीवारों में
खुलकर मिलो सबसे
खुशियाँ नज़ारों में।

करते रहो बातें
जीते रहो बेमिसाल
वरना उम्र का क्या
कट जाएगा ही साल।

अकेले आये थे
अकेले ही जाना है
ये जीवन भी हमें
अकेले ही बिताना है।

©️®️अनुनाद/आनन्द कनौजिया/२०.०३.२०२१